बस्तर में मनाया गया गोंचा पर्व, तुपकी चलाकर भगवान जगन्नाथ को दी गई सलामी
जगदलपुर। पहली नजर में भले ही ये संपन्न न दिखें पर सुख, शांति, उत्साह, उमंग और उत्सव का कोई पल खुशी-खुशी मनाने से नहीं चूकते। धरती के रूप, रस और गंध मिली इनकी संस्कृति इंद्रधनुषी छटा लिए हुए है। ऐसी ही सतरंगी छटा वाला एक पर्व है "गोंचा"। देवी "गुंडिचा" का पुण्य स्मरण कई दिनों तक चलने वाले पर्व को उत्सव में बदल देता है।
बस्तर में 618 साल से मनाया जा रहा गोंचा पर्व: इस साल का गोंचा उत्सव शुक्रवार को मनाया गया। यहां भगवान के दर्शन और रथ खींचने के लिए हजारों श्रद्धालु पहुंचे थे। बस्तर गोंचा पर्व भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में बांस से बनी बंदूक जिसे तुपकी कहा जाता है चलाकर सलामी दी गई। यह सांस्कृतिक उत्सव के साथ-साथ सामाजिक एकता का पर्व है।
रथयात्रा का आयोजन
शहर के सिरहासार चौक स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर से भगवान को रथारूढ़ किया गया। देवी सुभद्रा और बलभद्र भी अलग-अलग रथों में बैठे थे। परंपरानुसार बस्तर राजपरिवार के सदस्यों कमलचंद्र भंजदेव व पुजारियों ने विधि-विधानपूर्वक पूर्जा अर्चना की कमलचंद्र भंजदेव ने रथों के सामने चांदी के छाड़ु से छेरापोरा रस्म अदा की। जगन्नाथ मंदिर से रथ गोलबाजार चौक, माई दंतेश्वरी मंदिर के सामने से होकर जगन्नाथ मंदिर पहुंचा।
बस्तर का गोंचा पर्व: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
बस्तर अंचल में रथयात्रा उत्सव का श्रीगणेश चालुक्य राजवंश के महाराजा पुरूषोत्तम देव की जगन्नाथपुरी यात्रा के पश्चात हुआ। पौराणिक कथानुसार ओडिशा में सर्वप्रथम राजा इंद्रद्युम ने रथयात्रा प्रारंभ की थी, उनकी पत्नी का नाम "गुण्डिचा" था। ओडिशा में गुंण्डिचा कहा जाने वाला यह पर्व कालांतर में परिवर्तन के साथ बस्तर में गोंचा कहलाया।
जगन्नाथपुरी की तरह यहां भी गोंचा पर्व चंदन यात्रा से प्रारंभ हो जाता है तथा विधिविधान से पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात भगवान 15 दिन तक अस्वस्थ हो जाते हैं इस विधान को अनसर कहा जाता है। तत्पश्चात नेत्रोत्सव मनाया जाता है जब भगवान स्वस्थ होकर श्रद्धालुओं को दर्शन देते हैं। अगले दिन भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रारंभ हो जाती है जिसे यहां श्रीगोंचा कहा जाता है। भगवान के विग्रहों को पूजा-अर्चना कर तीन रथों में सुसज्जित कर सिरहासार लाया जाता है, जहां भगवान को 9 दिनों तक अस्थाई रूप से विराजित किया जाता है।
तुपकी चलाने की अनूठी परंपरा
पर्व पर चलने वाली "तुपकी" बांस की एक सेंटीमीटर व्यास वाली पोली लंबी नली होती है। इसमें मटर के दाने के आकार वाले छेद में "पेंग" नामक कच्चा फल भर दिया जाता है। फिर पीछे से बेंट लगी बांस की ही बनी मोटी सी छड़ से पूरे दबाव के साथ ठेला जाता है। एक फल दूसरे को पूरे दबाव के साथ जब बाहर की ओर फेंकता है तो उसके प्रस्फुटन से जो ध्वनि होती है वह फट की होती है।
ध्वनि के विस्तार और गुंजन के लिए ताड़पेड़ के पत्तों का चोंगानुमा खोल पोली नली के आगे लगा होता है जिसकी गूंज दूर तक जाती है। चोंगेनुमा खोल को तरह-तरह से रंग-बिरंगे कागजों, चमकीले तावों से सजाना-संवारना भी ग्रामीण खूब जानते हैं। अच्छी एक तुपकी और इसके लिए कारतूस का काम करने वाले पेंग दोनों की गुच्छी के दाम सौ रुपए तक हो सकते हैं। वैसे सस्ती से सस्ती तुपकी 30-40 रुपए में मिल जाती है।
साहित्यकार रूद्रनारायण पाणिग्राही लिखते हैं कि बस्तर में बंदूक को "तुपक" कहा जाता है। "तुपक" शब्द से ही "तुपकी" शब्द बना है। अपने आराध्य की पूजा-पाठ, आराधना उत्सव आदि पर हर्ष ध्वनि (सलामी) की परंपरा अनादि काल से हैं। ग्रामीण भी अपनी खी जाहिर करने तुपकी चलाकर हर्ष ध्वनि करते हैं। ऐसा मानने वालों से अलग वर्ग "तुपकी" चलाना नहीं "तुपकी" खेलना मानता है।